Wednesday, September 7, 2016

धर्म और राजनीति: एक चिंतन -- भाग १: प्रस्तावना


मित्रों, कुछ दिनों से धर्म और राजनीति को ले कर पारम्पारिक समाचार माध्यम और सोशल मीडिया दोनों पर बहुत सारी चर्चाएँ छिड़ी है. कश्मीर प्रश्न, हरियाणा विधानसभा में जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज का प्रवचन, गणेशोत्सव, मदर तेरेसा को वेटिकन द्वारा संत घोषित किया जाना, उस बात का सरकारी महकमों में महिमा मंडन, वगैरह बहुत सारे प्रश्नों पर घर, बाजार, कार्यालय, फेसबुक, ट्वीटर... हर तरफ गहमा-गहमी छायी रही. इस चर्चा में मुझे एक बात अखर रही थी. वो थी धर्म और राजनीति, इन दोनों के सम्बन्ध में लोगों की एक सम्यक दृष्टि होनी चाहिए, उसका मुझे घोर अभाव महसूस हुआ. जब तक यह सम्यक दृष्टि नहीं जागेगी, धर्म, समाज, और राजनीति का परस्पर सम्बन्ध और उन के साहचर्य के बारे में हम जो भी कहेंगे सही नहीं होगा.
मैं चाहता हूँ कि धर्म और राजनीति के बारे में मैं कुछ लिखूं, ताकि हमारी चर्चाएँ भटकने की बजाए सही राह पर चलें. मैं इन दोनों विषयों में कोई अधिकार नहीं रखता, लेकिन सिर्फ यह कोशिश कर रहा हूँ कि हमारे विमर्श में एक अनुशासन रहे. इस से हमारी ऊर्जा व्यर्थ नहीं जाएगी, और हम किसी निष्कर्ष पर ज़रूर पहुँच सके. यह बस मेरे विचारों का धाराप्रवाह अनुलेखन है. संभव है, कि एक लेख इसे प्रस्तुत करने में अपर्याप्त हो. उस दशा में मैं एक विचार पूर्णतया रख कर शेष अगले लेख में लिखूंगा. इस से जो विचार रखा गया है, उस पर चर्चा होगी, और विचार मंथन से जो ज्ञान-नवनीत निकले, उस से अगला पड़ाव भी प्रभावित हो सकता है. बस एक बिनती है, कि चर्चा घनी हो, क्यों कि जब तक हम चर्चा से बचते रहेंगे, हमारी धारणाओंको चुनौती नहीं मिलेगी. और जब तक यह चुनौती नहीं मिलती है, हमें हमारी धारणाएं परिष्कृत और संशोधित करने का मौका नहीं मिलेगा! अत: आपका सहयोग प्रार्थनीय है.
'धर्म' शब्द का व्यावहारिक अर्थ है, स्वभाव, गुणधर्म, या अंगरेजी में कहा जाए तो properties, characteristics. जैसे अग्नि का धर्म है तपना, बर्फ का धर्म शीतलता है. हिरन का धर्म घास चरना है, तो शेर का धर्म माँस खाना. इस प्रकार जो कुछ किसी चीज की मूल प्रवृत्ती है, स्वभाव है, उसे उस चीज का धर्म कहा जा सकता है. इस अर्थ से यह शब्द हिंदी में ख़ासा प्रचलित है. इसी तर्ज पर कहा जा सकता है, कि हर सजीव और निर्जीव चीज अपने अपने धर्म के अनुसार चलती है, और इसी से ही सृष्टि का चक्र निरंतर चलता रहता है.
मनुष्य छोड़ सारे प्राणी अपने-अपने धर्म (स्वधर्म) के हिसाब से बगैर किसी भूल के चलते है. उन में धर्म को लांघने की क्षमता है ही नहीं. मानव प्राणी के बारे में भी यह बात कुछ हद तक सच है. इसी कारण से जो व्यक्ति केवल अपनी आदिम प्रेरणाओं के हिसाब से चलता है, उस की गणना हम पशुओं में करते है. मनुष्य में एक बात खास है, और वह है विवेक. यह बुद्धि के विकास की चरमावधि है, जिसके चलते मनुष्य पशु की अवस्था से ऊपर उठ कर आज की प्रगत स्थिती को प्राप्त कर चुका है.
धर्म इस पहले आकलन में हम उसे जीवनयापन के प्राकृतिक नियम या विधा कह सकते है. इस पर यह बात आएगी, कि इस प्रकार तो धर्म एक ही हुआ! तो फिर अनेक धर्म आए कहाँ से?
सुदूर उत्तर ध्रुवीय प्रदेशोंमें, गर्मियों में छह महीने दिन ही दिन चलता है, और जाड़ों के छह महीने रात ही रात. जाड़ों में सारी धरती पर बर्फ की मोटी चादर चढी होती है. उन प्रदेशों में लोमड़ी जाड़ों के छह महीनों में बर्फ की तरह सफ़ेद होती है. जैसे ही गर्मी मौसम आता है, वे सफ़ेद बाल झड जाते है, और नीचे काली मटमैली खाल लिए लोमड़ी गर्मियों के बर्फ विहीन परिवेश के लिए सिद्ध हो जाती है. उष्णकटिबंधीय लोमड़ी में यह विधा नहीं पायी जाती है.
अब ध्रुवीय लोमड़ी का धर्म सफेद होना है, या मटमैला? ऐसा कहा जाएगा, कि ध्रुवीय लोमड़ी का धर्म छह महीने सफ़ेद रहना, और छह महीने मटमैला काला रहना है. यह बात मानी जानी चाहिए, क्यों कि यह बात किसी भी समय असत्य सिद्ध नहीं होगी. इसी तरह, मनुष्य को भी उसी बात को धर्म मान लेना चाहिए, जो उसके बारे में कहा जा सकता है, और उसको झुठलाए जाने की कोई संभावना नहीं है.
इस तरह हम कह सकते है, कि मनुष्य का धर्म भी एक ही होता है. विवेक की अपार शक्ति पर अधिकार होने के कारण मनुष्य अपने सहज धर्म का सुचारू रूप से पालन करना भूल गया है. या कहिए, अपनी बुद्धि और विवेक के आधार पर मानव में इतनी संभावनाएं उभर आयी है, कि कौनसा आचरण धर्म के अनुकूल है, और कौनसा धर्म के विपरीत, इसका संभ्रम मनुष्य जाति को होने लगा है. अपने वास्तविक, सहज धर्म को, स्वधर्म पहचानने की मनुष्य की शक्ति सीमित है. फिर भी, यत्नपूर्वक उसे पहचान कर उस के अनुकूल वर्तन करने में ही मनुष्य जाति का हित समाहित है.
चर्चा और पुन:प्रेषण का आग्रह है! शेष अगली किश्त में!

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